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"हिन्दी के साथ भेदभाव" आखिर कब तक?

कितनी अजीब बात है कि, देश के सबसे बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली भाषा 'हिन्दी' आज अपने ही देश में बेगानी बनी हुई है। पूरी दुनिया जानती है कि, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की भाषा हिन्दी थी। भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों, साहित्यकारों, कवियों, स्वामी दयानन्द सरस्वती से लेकर सुभाष चन्द्र बोस तक सबने भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी रखने के लिए अथक प्रयास किये, परन्तु एक राजनीतिक हठ के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता मिलने से वंचित होना पड़ा। आजाद भारत में राजकाज की भाषा तय करने के लिए जब वर्ष 1955 से 1961 तक तत्कालीन भारत के गृहमंत्री रहे, गोविन्द वल्लभ पंत की अध्यक्षता में संसदीय समिति गठित की गई थी तब संसदीय समिति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में हिन्दी को राष्ट्रभाषा तथा अंग्रेजी को सहायक राष्ट्रभाषा बनाने की सिफारिश की गई थी, भारतीय संविधान में उल्लेखित सरकारी कामकाज की भाषा (राष्ट्रभाषा) के रूप में अंग्रेजी से बदल कर हिन्दी करने की अंतिम तिथि 26 जनवरी 1965 मुकर्रर की गई थी, परन्तु अंग्रेजी परिवेश में पले- बढे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू इसे अहिन्दी भाषियों के