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Showing posts from 2017

प्रारब्ध या नियति

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प्रारब्ध, या नियति कहूँ ? या फिर दोष तुम्हारा कहूँ ? बेबस हूँ, लाचार नहीं पर उदरों की ये ज्वाला कैसे शांत करूँ ? अकिंचनता से लथ-पथ तन की, दशा कैसे ठीक करूँ ? रुंदन-क्रुंदन से व्याकुल मन की, व्यथा किससे साझा करूँ ? अरमानों की चिता जली है, किससे ये फरियाद करूँ ? छोड़ गए क्यूँ, बीच भंवर में, कायर या नामर्द कहूँ ? कमी थी मुझमें या सौतन का जादू, या बेवफा तुमको कहूँ ? चकाचौंध में उलझ गए दुनिया के, या दहेज लोभी कहूँ ? बोझ समझ या लोक-लाज के खातिर, निर्दयी भ्रूण हत्यारा कहूँ ? चंद रुपये के लोभ की खातिर कर दिए सौदा, मजबूरी या बेटी-बेचवा कहूँ ? लगा नशे में दाँव आज फिर जुऐ पर, शराबी या अय्याश कहूँ ? रिश्तों की तहजीब नहीं है या फिर बदतमीज़ आवारा कहूँ ? हाथ उठाके पुरुषार्थ का दंभ हो भरते, मर्दानगी या नपुसंकता कहूँ ? छल से हरते हो बेबस को राहों से, वहशी या निर्लज कहूँ ? लाश हूँ जिंदा अंतर्मन से क्या जिस्म, तुझे ये भेंट करूँ ? क्षणिक वासना,भोग में डुब के नोचते, कैसे मैं तुझे इंसान कहूँ ? वशीभूत हो कामाग्नि में रात भर, लाश नोचता हैवान कहूँ ? कितने को ब

न्यायिक सुधार (Judiciary Reforms) वक्त की मांग

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विविधताओं से भरे हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था भी विविधताओं से अछुती नहीं है। अब आप ही देख लो, एक तरफ़ हमारे देश के कानूनविद कहते हैं देर से मिलने वाला न्याय भी अन्याय की श्रेणी में ही आ जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ वही कानूनविद कहते हैं, चाहे सौ गुनहगारों को क्यों न रिहा करना पड़े, एक बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। चाहो तो आप अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के सबसे बड़े शैक्षणिक संस्थान में देश विरोधी नारे भी लगा सकते हो, प्रधानमंत्री को गाली और सर काटकर लाने पर ईनाम देने वाला फतवा भी जारी कर सकते हो, हमारे संविधान में उनकी भी स्वीकृति है । हमारे संविधान में एक तरफ गुनाहगारों को विलम्ब से ही लेकिन सज़ा तो देती है परन्तु उस सजा से बचने के सौ रास्ते भी बताती है । जी हाँ कुछ ऐसी ही है हमारे अखंड भारत वर्ष की न्यायिक व्यवस्था और हमें हमारे न्यायिक व्यवस्था में गहरी आस्था के साथ-साथ गर्व भी है। परंतु विगत वर्षों में न्यायपालिका द्वारा सबुत के अभाव में आरोपितों का बरी किया जाना, आमजनों के लिए जहाँ बेहद ही हास्यास्पद और हस्तप्रभ करने वाला फैसला है, वहीं लोकतंत्र के लिए खतरा और समाज में

गुज्जू भाई का प्रसाद

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आखिरकार गुजरात चुनाव के भी नतीजे आ ही गए, कहीं जश्न में भी एक टीस सी रह गई, कहीं गम में भी खुशी की चमक, जैसे बुझते हुए दिए को तेल की एक बूंद मिल गई हो। ख़ुशी दोनों तरफ है, तो गम भी दोनों तरफ है, फिर भी जो भी कह लो मगर इन गुज्जू भाईयों की दरियादिली की दाद देनी पड़ेगी, ऐसे ही लोग गुजरातियों के मुरीद नहीं होते, चाहे वो अपने गाँधी बाबा हो या सरदार पटेल या हम सबके चहेते नरेंद्र भाई मोदी । अब देखिये ना एक ही चुनाव में सारे दलों को और छुटभैये नेताओं को उनके ही हिसाब से उनको अपनी औकात भी बता देते हैं और अगाध प्रेम भी, लेकिन आईना सब को बराबर दिखाते हैं हमारे गुज्जू भाई । अब आप ही देख लो, एक तरफ़ कांग्रेस को वोट तो दिया लेकिन   सत्ता नहीं दिया और जातिवाद, वंशवाद और असली हिंदू-नकली हिंदू का फर्क समझा दिया, वंही भाजपा को सत्ता तो मिला लेकिन आशा के अनुरूप सीट नहीं मिला और उसे भी पानी से हवा में छलांग रहे नेताओं को वापस जमीन पर लौट कर जनता के जमीनी समस्याओं को समझने का संकेत भी दे दिया। इतना ही नहीं हमारे गुज्जू भाईयों ने आरक्षण और दलित-महादलित के जाल में फंसा रहे सीडी वाले और मशरूम वाले छुटभैये

रात अभी तक सोई थी

भोर हूई थी बोझिल-बोझिल, उपवन भी मुरझाई थी आँख खुली तो लगा के जैसे, खिड़की पर कोई रोई थी देखा तो आँखें भीगी थी, वो बच्ची जो अकेली थी कोई पास में उसके सोई थी, वो माँ जो नई-नवेली थी बाहर निकला, हाथ दिया, सहसा मन को झकझोर गया वो मृत पड़ी थी शैय्या पर, कोई हवसी शायद नोच गया भूख, गरीबी, लाचारी की, शायद ये सताई थी सुना किसी के मुख से ये तो, घर से गई भगाई थी ले बच्ची को साथ में अपने, दर-दर ठोकर खाई थी पीहर में भी अपनी सौतेली, माँ की वो सताई थी पथरायी आँखों से बोझिल, कदमों से हुई पराई थी ले हौसला निकल पड़ी थी, जग की ठोकर खाई थी ढलता सूरज धमकाया था, ढूंढ ले अपने आशियाने को सर्द है मौसम रातें लम्बी, बच्ची को भी बचानी थी देख के मंदिर सुना-सुना, रुकने यहाँ वो आई थी सुमिरन करके श्याम प्रभु का, दुखडा अपना रोई थी भूखी बच्ची की खातिर वो, खाना लेने आई थी लेकिन हवसी दानवों से, कहाँ वो बचने वाली थी भाग्य विधाता ने न जाने, क्या तकदीर बनाई थी मदद मांगती दरवाजे पर मेरे, वो जार-जार चिल्लाई थी यही सोच में पड़ कर मैं भी, सुध-बूध अपना खोई थी रौशन जग में आज भी शायद, रात अभी तक सोई थी"

कोहरा या धुंध

आज शाम अचानक, कोहरे के चौतरफे आक्रमण ने पुरे गांव को स्तब्ध कर दिया। प्रकृति का ये अजीबोग़रीब शरारत लोगों के लिए कौतूहल का विषय बन गया था। ख़ास कर बच्चों के लिए तो टीवी में पहाड़ीयों के उपर उड़ते बादलों सा नजारा था। बनना भी स्वाभाविक था क्योंकि उनके लिए पहली बार इस तरह की कोई घटना घट रही थी। बच्चों के लिए ही नहीं ये सब के लिए नया था, क्योंकि पहले के कोहरे और इस कोहरे में फर्क था, इस कोहरे में एक अजीब सी धुंध मिली थी जिससे सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। हमें ये समझते देर नहीं लगी कि ये असंतुलित होते पर्यावरण का नतीजा है। बच्चे उत्सुकता में प्रश्नों की बौछार कर रहे हैं, और हम अपनी गलती छुपाते शर्मसार हो रहें हैं, ग्लोबल वार्मिंग का ज्ञान बांच रहे हैं, और कर भी क्या सकते हैं। मन तो कर रहा अभी जा गड्ढा कुरेदें और पेड़ पौधों की लाईन लगा दें लेकिन बेबसी ऐसी की जेब से हाथ भी नहीं निकल रहा। शायद कुदरत अब भी मौका दे रही हमें चेतने का, शायद कह रही हो अब भी नहीं समझे तो फिर बहुत देर हो जाएगी, फिर गाते रहना "अब पछताए होत क्या जब चिड़ियां चूग गई खेत"

रोहिन्ग्या मुसलमान "शरणार्थी" या "रिफ्यूजी जिहाद" की साजिश ?

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हम भारतीय मानसिक रूप से इतने उदारवादी और भावुक होते हैं, की जब भी कोई अतिथि हो या असहाय हमारे यहाँ आते हैं, उसे हम अपना सिरमौर बना लेते हैं, क्योंकि हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार, हमारी सभ्यताएं ये हमें हमारे पूर्वजों से विरासत में मिली है। “अतिथि देवो भव:” हमारा मूल मंत्र भी है और धर्म भी है। हमारा देश पहले की तरह आज भी विविधताओं से भरा देश है जहां हर धर्म, हर मजहब के लोग रहते हैं। इसी खूबियों के कारण हमारे देश पर अनेकों विदेशी आक्रमणकारियों ने अपना प्रभुत्त्व स्थापित करने की कोशिश की, तथा कुछ ने लम्बे अर्से तक शासन भी किया। हमारे देश पर सबसे पहले आक्रमण करने वाले आक्रांता (बैक्ट्रिया के ग्रीक राजा, इन्हें भारतीय साहित्य में यवन के नाम से जाना जाता है।) से लेकर मुगलों ने, सिकंदर से लेकर वास्कोडिगामा तक सब अपने अपने तरीके और सहुलियत के हिसाब से हमारे देश में आएँ और धीरे-धीरे यहाँ की धरोहरों पर अपनी काली नज़र गाड़ लूटने की साजिश रचे और लूटते रहें। आज फिर हमारे देश में बहुत ही सुनियोजित तरीके से रोहिन्ग्या मुसलमानों को शरणार्थी बना हमारे देश भेजे जाने की एक साजिश रची जा रही है, जिसे ह

प्राकृतिक आपदाओं के समाधान के प्रति कितने गम्भीर हम ?

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कहते हैं, "एक समाज जितनी तेज गति से परिवर्तनशील होता है समस्याएँ उससे अधिक तेज गति से प्रगतिशील होती है" हमारे समाज में समस्याओं और समाधानों का ताना-बाना इतना जटिल और विकराल है कि हम एक तरफ तो समस्या का निवारण करते हैं, लेकीन वहीं दूसरी तरफ समस्याएं अपना प्रकृति बदल कर हमारे सामने प्रकट हो जाती है। बीते दशकों में हमारा देश जनसँख्या वृद्घि, बेरोजगारी, आतंकवाद, नक्सलवाद, घुसपैठ, असमानता, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, भ्रूण हत्या, गम्भीर बिमारीया, जातिवाद जैसी अनेकों समस्याओं से जूझ रहा था, परंतु 2014 मे हुए सत्ता परिवर्तन के बाद सत्ताधारी दल इन समस्याओं से बहुत ही आक्रमक रूप से निपटता हुआ प्रतीत हो रहा है। परंतु इन सारे समस्याओं के समाधानों के बिच उलझे हुए रहने के कारण हम प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए कोई ठोस कदम उठाने पर विचार और इसके स्थाई समाधान पर चिन्तन नहीं कर पाते हैं। हमारे समाज के लिए, सरकर के लिए और इस पृथ्वी के लिए यह महज एक सवाल ही नही, एक भयावह भविष्य है जिसे हमें समय पूर्व गम्भीर चिन्तन कर जल्द से जल्द अमल में लाने की जरुरत है वर्तमान समय में हमारा देश बाढ़ के व

साजिशों के गिरफ्त में युवा पीढ़ी

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अजीब विडम्बना है हमारे आज के युवा पीढ़ी की, इतने पढ़े लिखे और समझदार होने के बावजूद भी अपने विचारों और भावनाओं को सूली पर चढ़ा वाह्य शक्तियों और परिवारवादी राजनैतिक दलों के चक्रव्यूह में फंस कर अपने ही देश में अपने ही देश से आजादी और टुकड़े करने का नारा लगाने लगते हैं और उनके साथ खड़े हो जाते है। --ये जानते हुए कि वो बलात्कारियों को दस हजार रुपये और सिलाई मशीन बांट रहा है। --ये जानते हुए कि वो अपने और अपने परिवार को सत्ता में स्थापित करने के लिए तमाम राजनैतिक प्रपंच रच रहे हैं। --ये जानते हुए कि वो नक्सली विचारधारा प्रेरित हो पुरे देश में लाल झंडा फहराना चाहते हैं। फिर भी हम उनके झंडे थाम लेते हैं। आखिर क्यों?? यह एक सवाल है जिसे हमें समझना होगा। कुछ वर्षों पहले हमारे बिहार के नेताजी ने कहा था कि, 'हमरे जीते जी कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता' और ये वही नेताजी हैं, जिन्होंने वर्षों पहले (वर्ष याद नहीं है लेकिन बिहार विभाजन से पहले की बात है) हमारे गृह जिला दरभंगा एक रैली को संबोधित करने पँहुचे थे, उस रैली में हमरे नेताजी ने कहा था कि, "बिहार का बँटवारा हमरी

जी चाहता है |

कुछ अधूरे शब्द जो बिखरे पड़े थें मन के संदूक में आज फिर से उनमें पंख लगाने को "जी चाहता है" कुछ अधूरे गीत जो खामोश पड़े थें दिल की दहलीज़ पर आज फिर से उन्हें गुनगुनाने को "जी चाहता है" कुछ अधूरे ख़्वाब जो बेजान पड़े थें यादों के झरोखें में आज फिर से उनमें रंग भरने को "जी चाहता है" कुछ अधूरे वादे जो टूटे पड़े थें ख़्वाहिशों की मेज पर आज फिर से उन्हें जोड़ने को "जी चाहता है" कुछ अधूरे साँस जो गुमसुम पड़े थें मौत के दरवाज़े पर आज फिर से उन्हें रुह में शामिल करने को "जी चाहता है" |

मैं ओंकार हूँ

मैं ओंकार हूँ |~~ पथिक राह नवसृजन करता सूर्य का वह तेज हूँ मन स्वच्छंद नवरस को पीता भक्ति का परिवेश हूँ मैं ओंकार हूँ |~~ उन्मुक्त गगन में कलरव करता पंछी का वह शोर हूँ बदरों के संग अठखेली करता इंद्रधनुष का रंग हूँ मैं ओंकार हूँ |~~ अविरल धारे सा मैं बहता नदियों का प्रवाह हूँ भृकुटी तान के रक्षा करता हिमालय का विस्तार हूँ मैं ओंकार हूँ |~~ वीभत्स भी हूँ, विभोर भी हूँ काल का वह ग्रास हूँ ताप, संताप से दूर ले जाता क्षितिज का वह मार्ग भी हूँ | हाँ, मैं ओंकार हूँ |~~

अब उठो पार्थ

अब उठो पार्थ हुंकार भरो हर दुश्मन पर प्रहार करो घर में बैठे गद्दारों का अब चुन-चुन कर संहार करो पाक-परस्ती करते हैं जो उन दूष्टों का अब पहचान करो चक्रव्यूह रचते हरपल जो अब उस पर वज्रप्रहार करो अब उठो पार्थ ~~~~~~ कब तक डीपी काली करके नाकामी का रोना रोओगे कब तक भारत माँ के लालों का तुम सीना छलनी होते देखोगे अब उठो पार्थ ~~~~~~ त्रिशूल उठा सिंहनाद करो डम-डम डमरू का तान भरो अब हर-हर, हर-हर महादेव का गगनभेदी जयकार करो अब उठो पार्थ ~~~~~~ पड़ा हिमालय खतरे में है अब याचना नही रण करो आँख दिखाते ड्रैगन के तुम रक्त से उसके तिलक करो अब उठो पार्थ ~~~~~~ काश्मीर हो या कैराना केरल या बंगाल, असाम अब बनो शिवाजी, भगत सिंह हल्दीघाटी से श्रृंगार करो अब उठो पार्थ ~~~~~~ मोह त्याग दो संस्कारो का अब संस्कृति का बचाव करो बाँध के भगवा पगड़ी सर पर अब धर्म का अपने रक्षा करो अब उठो पार्थ हुंकार भरो हर दुश्मन पर प्रहार करो घर में बैठे गद्दारों का अब चुन-चुन कर संहार करो

मेरे एहसास

तुम मेरे एहसास में ऐसे शामिल हो जैसे सुबह की आगोश में सिमटी हुई वो ओस की बूँदे और सर्द हवाओं के थपेड़ों में उलझी हूई वो सुर्य की लालिमा जैसे सिंदूरी शाम की आगोश में लिबझी हूई वो ख़्वाबों की सरगोशीयाँ और चाँद की दूधिया रौशनी में आलिंगन करती हूई वो काली घटाएं जैसे सुर्ख गुलाबी अधरों से छलकती हूई वो यौवन रस अंगूरी और मखमली फूलों की सेज पर अंगराई लेती हूई वो सुन्दरता की देवी जैसे भोर के भजन में गूंजती "श्याम की बंशी"

लिब्रांडू बुद्धिजीवी "एक जिवाणु"

हमारे देश के लिबरल या कहे कि छन्न उदारवादी। इनकी बुद्धि की शुद्धि करने की जरूरत है। ईश्वर का शुक्र है कि इनकी संख्या बहुत कम है, अगर देश की आबादी में इनके जैसे 5 प्रतिशत लोग भी हो जाए तो ये देश का सत्यनाश कर दे। हमारा मीडिया इनको बुद्धिजीवी क्यों कहता है? ये आज तक मैं नहीं समझ पाया। कुछ न्यूज़ एंकर ताने के रूप में इस शब्द का प्रयोग करते है तो कुछ बड़े ही गर्व से इनको बुद्धिजीवी कहते है लेकिन एक बात तो है कि 'बुद्धिजीवी' शब्द बोलते वक्त उनके हाव-भाव पूरी तरह से बदल जाते है। किसी एंकर की आंखों में शोले भड़क रहे होते है तो किसी की आंखों में शरारत दिखती है खैर जो भी हो इस 'बुद्धिजीवी' शब्द में वजन तो है। चलिए अब इनका बारीकी से विश्लेषण करते है। इनके एक नहीं अनेकों नाम है। लोग इन्हें प्यार से लिबरल कहते है, बोले तो उधारवादी। सॉरी उदारवादी। मानवतावादी। गुस्से में तो लोग इनको बहुत कुछ कहते है वो सब मैं आपको नहीं बता सकता। अपने दिमाग की बत्ती जलाओ। दरअसल इनकी पूरी एक बिरादरी है। जमात है। इनकी जमात से ताल्लुक़ात रखने वाले लोग सरकारी कचहरी से लेकर स्कूल-कॉलेजों तक में है। ये बड

"काश्मीर मांगे क्रांति" अलगाववादीयों के खिलाफ

कश्मीर के वर्तमान हालात के ऊपर अगर नजर डाला जाए तो DSP अय्यूब की हत्या कश्मीर में एक नई "क्रांति" का आगाज कर सकती है, बशर्ते काश्मीर के अमन पसंद लोग अलगाववादीयों द्वारा फैलाए आजाद मुल्क की हकीकत को समझे | क्योंकि DSP अय्यूब की हत्या ने साबित कर दिया है कि कश्मीर में पाकिस्तान परस्त इस्लाम और कट्टर जिहादी इस्लाम यह दोनों अलगाववादियों के आड़ में अपना पांव पसार चूकी है| या यूं समझ ले काश्मीर में अब ISIS, मिरवाईज, यासीन मल्लिक, गिलानी और अब्दुल्ला खानदान जैसे मूल्क के गद्दारों के कंधे पर बंदूक रख गोली चला रहा है| ये अलगाववादी हूर्रियत नेता अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ती के लिए मासूम बच्चों और युवाओं, अब तो लड़कीयों के भी हाथों में पत्थर पकड़ा रहा है | काश्मीर के शांतिप्रिय नुमाइंदो को ये समझना होगा के काश्मीर समस्या का हल कोई राजनैतिक पार्टी या आसमानी ताकत हल करने नही आनेवाला, इसे काश्मीर के लोगों को ही हल करना है, आपको ही पहचान करनी होगी, उनकी जो आपका इस्तेमाल कर रहे हैं, जो आपके बच्चो के हाथों में पत्थर पकड़ा रहे हैं जो जिहाद के नाम पर आपके बच्चों को आत्मघाती बना