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Showing posts from January, 2018

सहिष्णुता से असहिष्णुता की ओर बढ़ने पर मजबूर करता हमारा समाज

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काश्मीर से लेकर केरल, कैराना, कर्नाटक, बंगाल, असाम तक और भीमा कोरेगांव से लेकर कासगंज तक ये हम हिंदूओं की ही कमजोरी भी है और देन भी है, कि चंद मुट्ठी भर तथाकथित शांतिदूत आज देश के हर कोने में हिंदुओं पर हावी होता जा रहा है। कमजोरी इसिलिए क्योंकि हम हिंदू आज भी अपने उदारवादी प्रवृत्ति से बाहर निकल कर नहीं सोचते, और हमेशा बहुसंख्यक होने का ठप्पा लगवाकर सहिष्णुता और गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल क़ायम करने के लिए आगे आने पर मजबूर हो जाते हैं । और देन इसिलिए क्योंकि हम हिंदू आज भी अपने इतिहास से सबक नहीं सीखा, हमने शुरू से ही संगठित होकर लड़ाई नहीं लड़ी जिसका परिणाम आज हमें कासगंज जैसे घटनाओं का सामना अपने भाईयों की बली चढ़ाकर करना पड़ता है। क्या कारण था ? • मो. गोरी से अकेले पृथ्वीराज चौहान ने ही युद्ध किया बाकी पड़ोसी हिन्दू राजा क्या कर रहे थें ? • अकबर से केवल मेवाड़ के महाराणा प्रताप लोहा ले रहे थे बाकी पूरे भारत के राजा कहाँ थें ? • शिवाजी महाराज अकेले अफजल खां और औरंगजेब से युद्ध लड़ रहे थे बाकी के हिन्दू राजा क्यों दुबके हुए थें ? इतिहास गवाह है जब-जब हिंदू बंटा है तब-तब हिंदू क

गुमशुदा विकास की समीक्षा-यात्रा

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पत्रकारिता जब अपने चरम पर होती है तब ऐसी ही खबरें निकल के सामने आती हैं, और जब किसी राज्य में विकास अपने चरम पर हो, तब मानव श्रृंखलाएं। राज्य के विकास को परिभाषित करती ये तस्वीर आपको बरबस सोचने के लिए मजबूर कर देती है कि इंसान जब हठधर्मी हो जाता है, जब उस पर इतिहास के सुनहरे पन्नों पर अपना नाम दर्ज करवाने की सनक चढ़ जाए, तो वह कुछ भी कर सकता है । जी हां जिस राज्य में शिक्षकों का बकाया वेतन भुगतान होना समाचार बन जाता है उस राज्य में विकास की स्थिति क्या हो सकती है, इसका आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और कानून व्यवस्था आज फिर से बदहाल है, आज भी लोग दुसरे शहरों में रोजगार के लिए पलायन करने को मजबूर हो रहें हैं । विकास-पुरुष और सुशासन बाबु की छवि को ताक पर रखकर समाज सुधारक बनने की ख्वाहिश लिए विकास-समीक्षा यात्रा पर निकले हमारे मुख्यमंत्री जी किस विकास की समीक्षा में वक्त जाया कर रहे हैं ये हम जैसे टीईटी पास बेरोजगार युवाओं के समझ से परे है, लेकिन इतना समझ में आ रहा है कि साहब जिस विकास की नाव पर सवार होकर सत्ताधीश हुए हैं उस नाव में अपने सनक से छेद कर रहे हैं ।

देशद्रोहियों पर चुप्पी "सियासत या मजबूरी"

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अजीब विडंबना है, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के अनुयायी जो ख़ुद को दलितों के तारणहार बताएं फ़िरते थें, वो आज सरे-आम अपने आदर्श द्वारा रचित कानून की धज्जियां उड़ाए जा रहें है । अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सरेआम दंगा-फसाद मचाया जा रहा है, लोगों के समक्ष मनुवाद और ब्राह्मणवाद के नाम पर जातिवाद का झूठ परोसा जा रहा है, फिर भी सरकार और प्रशासन चुप्पी साधे बैठी है । आजाद भारत का एक आजाद नागरिक होने के नाते हम सरकार से जानना चाहते हैं कि, क्या देश में देशद्रोहियों को चिन्हित करने का मापदंड नहीं है ? अगर है तो पूणे और महाराष्ट्र में सवर्ण और दलित के नाम पर जो दंगा-फसाद मचाया जा रहा है, क्या वो देशद्रोह नहीं है ? क्या कारण है ? देश के शीर्ष शैक्षणिक प्रतिष्ठान में देशद्रोहियों द्वारा देश विरोधी नारे लगाने और महाराष्ट्र और पुणे जैसे घटनाओं को अंजाम देने के बाद भी आजाद हो कर घूमते हैं। क्या कारण है ? गिलानी जैसे लोग भारत की सरजमीं में रह कर "इंडिया गो बैक" के नारे लगाने के बावजूद भी खुलेआम घुम रहे हैं । आश्चर्य है, "अंग्रेजों और भारतीय" के बीच की लड़ाई को "मराठा