Posts

Showing posts from July, 2017

जी चाहता है |

कुछ अधूरे शब्द जो बिखरे पड़े थें मन के संदूक में आज फिर से उनमें पंख लगाने को "जी चाहता है" कुछ अधूरे गीत जो खामोश पड़े थें दिल की दहलीज़ पर आज फिर से उन्हें गुनगुनाने को "जी चाहता है" कुछ अधूरे ख़्वाब जो बेजान पड़े थें यादों के झरोखें में आज फिर से उनमें रंग भरने को "जी चाहता है" कुछ अधूरे वादे जो टूटे पड़े थें ख़्वाहिशों की मेज पर आज फिर से उन्हें जोड़ने को "जी चाहता है" कुछ अधूरे साँस जो गुमसुम पड़े थें मौत के दरवाज़े पर आज फिर से उन्हें रुह में शामिल करने को "जी चाहता है" |

मैं ओंकार हूँ

मैं ओंकार हूँ |~~ पथिक राह नवसृजन करता सूर्य का वह तेज हूँ मन स्वच्छंद नवरस को पीता भक्ति का परिवेश हूँ मैं ओंकार हूँ |~~ उन्मुक्त गगन में कलरव करता पंछी का वह शोर हूँ बदरों के संग अठखेली करता इंद्रधनुष का रंग हूँ मैं ओंकार हूँ |~~ अविरल धारे सा मैं बहता नदियों का प्रवाह हूँ भृकुटी तान के रक्षा करता हिमालय का विस्तार हूँ मैं ओंकार हूँ |~~ वीभत्स भी हूँ, विभोर भी हूँ काल का वह ग्रास हूँ ताप, संताप से दूर ले जाता क्षितिज का वह मार्ग भी हूँ | हाँ, मैं ओंकार हूँ |~~

अब उठो पार्थ

अब उठो पार्थ हुंकार भरो हर दुश्मन पर प्रहार करो घर में बैठे गद्दारों का अब चुन-चुन कर संहार करो पाक-परस्ती करते हैं जो उन दूष्टों का अब पहचान करो चक्रव्यूह रचते हरपल जो अब उस पर वज्रप्रहार करो अब उठो पार्थ ~~~~~~ कब तक डीपी काली करके नाकामी का रोना रोओगे कब तक भारत माँ के लालों का तुम सीना छलनी होते देखोगे अब उठो पार्थ ~~~~~~ त्रिशूल उठा सिंहनाद करो डम-डम डमरू का तान भरो अब हर-हर, हर-हर महादेव का गगनभेदी जयकार करो अब उठो पार्थ ~~~~~~ पड़ा हिमालय खतरे में है अब याचना नही रण करो आँख दिखाते ड्रैगन के तुम रक्त से उसके तिलक करो अब उठो पार्थ ~~~~~~ काश्मीर हो या कैराना केरल या बंगाल, असाम अब बनो शिवाजी, भगत सिंह हल्दीघाटी से श्रृंगार करो अब उठो पार्थ ~~~~~~ मोह त्याग दो संस्कारो का अब संस्कृति का बचाव करो बाँध के भगवा पगड़ी सर पर अब धर्म का अपने रक्षा करो अब उठो पार्थ हुंकार भरो हर दुश्मन पर प्रहार करो घर में बैठे गद्दारों का अब चुन-चुन कर संहार करो

मेरे एहसास

तुम मेरे एहसास में ऐसे शामिल हो जैसे सुबह की आगोश में सिमटी हुई वो ओस की बूँदे और सर्द हवाओं के थपेड़ों में उलझी हूई वो सुर्य की लालिमा जैसे सिंदूरी शाम की आगोश में लिबझी हूई वो ख़्वाबों की सरगोशीयाँ और चाँद की दूधिया रौशनी में आलिंगन करती हूई वो काली घटाएं जैसे सुर्ख गुलाबी अधरों से छलकती हूई वो यौवन रस अंगूरी और मखमली फूलों की सेज पर अंगराई लेती हूई वो सुन्दरता की देवी जैसे भोर के भजन में गूंजती "श्याम की बंशी"