प्रारब्ध या नियति
प्रारब्ध, या नियति कहूँ ? या फिर दोष तुम्हारा कहूँ ? बेबस हूँ, लाचार नहीं पर उदरों की ये ज्वाला कैसे शांत करूँ ? अकिंचनता से लथ-पथ तन की, दशा कैसे ठीक करूँ ? रुंदन-क्रुंदन से व्याकुल मन की, व्यथा किससे साझा करूँ ? अरमानों की चिता जली है, किससे ये फरियाद करूँ ? छोड़ गए क्यूँ, बीच भंवर में, कायर या नामर्द कहूँ ? कमी थी मुझमें या सौतन का जादू, या बेवफा तुमको कहूँ ? चकाचौंध में उलझ गए दुनिया के, या दहेज लोभी कहूँ ? बोझ समझ या लोक-लाज के खातिर, निर्दयी भ्रूण हत्यारा कहूँ ? चंद रुपये के लोभ की खातिर कर दिए सौदा, मजबूरी या बेटी-बेचवा कहूँ ? लगा नशे में दाँव आज फिर जुऐ पर, शराबी या अय्याश कहूँ ? रिश्तों की तहजीब नहीं है या फिर बदतमीज़ आवारा कहूँ ? हाथ उठाके पुरुषार्थ का दंभ हो भरते, मर्दानगी या नपुसंकता कहूँ ? छल से हरते हो बेबस को राहों से, वहशी या निर्लज कहूँ ? लाश हूँ जिंदा अंतर्मन से क्या जिस्म, तुझे ये भेंट करूँ ? क्षणिक वासना,भोग में डुब के नोचते, कैसे मैं तुझे इंसान कहूँ ? वशीभूत हो कामाग्नि में रात भर, लाश नोचता हैवान कहूँ ? कितने को ब