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Showing posts from December, 2017

प्रारब्ध या नियति

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प्रारब्ध, या नियति कहूँ ? या फिर दोष तुम्हारा कहूँ ? बेबस हूँ, लाचार नहीं पर उदरों की ये ज्वाला कैसे शांत करूँ ? अकिंचनता से लथ-पथ तन की, दशा कैसे ठीक करूँ ? रुंदन-क्रुंदन से व्याकुल मन की, व्यथा किससे साझा करूँ ? अरमानों की चिता जली है, किससे ये फरियाद करूँ ? छोड़ गए क्यूँ, बीच भंवर में, कायर या नामर्द कहूँ ? कमी थी मुझमें या सौतन का जादू, या बेवफा तुमको कहूँ ? चकाचौंध में उलझ गए दुनिया के, या दहेज लोभी कहूँ ? बोझ समझ या लोक-लाज के खातिर, निर्दयी भ्रूण हत्यारा कहूँ ? चंद रुपये के लोभ की खातिर कर दिए सौदा, मजबूरी या बेटी-बेचवा कहूँ ? लगा नशे में दाँव आज फिर जुऐ पर, शराबी या अय्याश कहूँ ? रिश्तों की तहजीब नहीं है या फिर बदतमीज़ आवारा कहूँ ? हाथ उठाके पुरुषार्थ का दंभ हो भरते, मर्दानगी या नपुसंकता कहूँ ? छल से हरते हो बेबस को राहों से, वहशी या निर्लज कहूँ ? लाश हूँ जिंदा अंतर्मन से क्या जिस्म, तुझे ये भेंट करूँ ? क्षणिक वासना,भोग में डुब के नोचते, कैसे मैं तुझे इंसान कहूँ ? वशीभूत हो कामाग्नि में रात भर, लाश नोचता हैवान कहूँ ? कितने को ब

न्यायिक सुधार (Judiciary Reforms) वक्त की मांग

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विविधताओं से भरे हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था भी विविधताओं से अछुती नहीं है। अब आप ही देख लो, एक तरफ़ हमारे देश के कानूनविद कहते हैं देर से मिलने वाला न्याय भी अन्याय की श्रेणी में ही आ जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ वही कानूनविद कहते हैं, चाहे सौ गुनहगारों को क्यों न रिहा करना पड़े, एक बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। चाहो तो आप अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के सबसे बड़े शैक्षणिक संस्थान में देश विरोधी नारे भी लगा सकते हो, प्रधानमंत्री को गाली और सर काटकर लाने पर ईनाम देने वाला फतवा भी जारी कर सकते हो, हमारे संविधान में उनकी भी स्वीकृति है । हमारे संविधान में एक तरफ गुनाहगारों को विलम्ब से ही लेकिन सज़ा तो देती है परन्तु उस सजा से बचने के सौ रास्ते भी बताती है । जी हाँ कुछ ऐसी ही है हमारे अखंड भारत वर्ष की न्यायिक व्यवस्था और हमें हमारे न्यायिक व्यवस्था में गहरी आस्था के साथ-साथ गर्व भी है। परंतु विगत वर्षों में न्यायपालिका द्वारा सबुत के अभाव में आरोपितों का बरी किया जाना, आमजनों के लिए जहाँ बेहद ही हास्यास्पद और हस्तप्रभ करने वाला फैसला है, वहीं लोकतंत्र के लिए खतरा और समाज में

गुज्जू भाई का प्रसाद

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आखिरकार गुजरात चुनाव के भी नतीजे आ ही गए, कहीं जश्न में भी एक टीस सी रह गई, कहीं गम में भी खुशी की चमक, जैसे बुझते हुए दिए को तेल की एक बूंद मिल गई हो। ख़ुशी दोनों तरफ है, तो गम भी दोनों तरफ है, फिर भी जो भी कह लो मगर इन गुज्जू भाईयों की दरियादिली की दाद देनी पड़ेगी, ऐसे ही लोग गुजरातियों के मुरीद नहीं होते, चाहे वो अपने गाँधी बाबा हो या सरदार पटेल या हम सबके चहेते नरेंद्र भाई मोदी । अब देखिये ना एक ही चुनाव में सारे दलों को और छुटभैये नेताओं को उनके ही हिसाब से उनको अपनी औकात भी बता देते हैं और अगाध प्रेम भी, लेकिन आईना सब को बराबर दिखाते हैं हमारे गुज्जू भाई । अब आप ही देख लो, एक तरफ़ कांग्रेस को वोट तो दिया लेकिन   सत्ता नहीं दिया और जातिवाद, वंशवाद और असली हिंदू-नकली हिंदू का फर्क समझा दिया, वंही भाजपा को सत्ता तो मिला लेकिन आशा के अनुरूप सीट नहीं मिला और उसे भी पानी से हवा में छलांग रहे नेताओं को वापस जमीन पर लौट कर जनता के जमीनी समस्याओं को समझने का संकेत भी दे दिया। इतना ही नहीं हमारे गुज्जू भाईयों ने आरक्षण और दलित-महादलित के जाल में फंसा रहे सीडी वाले और मशरूम वाले छुटभैये