रात अभी तक सोई थी
भोर हूई थी बोझिल-बोझिल, उपवन भी मुरझाई थी आँख खुली तो लगा के जैसे, खिड़की पर कोई रोई थी देखा तो आँखें भीगी थी, वो बच्ची जो अकेली थी कोई पास में उसके सोई थी, वो माँ जो नई-नवेली थी बाहर निकला, हाथ दिया, सहसा मन को झकझोर गया वो मृत पड़ी थी शैय्या पर, कोई हवसी शायद नोच गया भूख, गरीबी, लाचारी की, शायद ये सताई थी सुना किसी के मुख से ये तो, घर से गई भगाई थी ले बच्ची को साथ में अपने, दर-दर ठोकर खाई थी पीहर में भी अपनी सौतेली, माँ की वो सताई थी पथरायी आँखों से बोझिल, कदमों से हुई पराई थी ले हौसला निकल पड़ी थी, जग की ठोकर खाई थी ढलता सूरज धमकाया था, ढूंढ ले अपने आशियाने को सर्द है मौसम रातें लम्बी, बच्ची को भी बचानी थी देख के मंदिर सुना-सुना, रुकने यहाँ वो आई थी सुमिरन करके श्याम प्रभु का, दुखडा अपना रोई थी भूखी बच्ची की खातिर वो, खाना लेने आई थी लेकिन हवसी दानवों से, कहाँ वो बचने वाली थी भाग्य विधाता ने न जाने, क्या तकदीर बनाई थी मदद मांगती दरवाजे पर मेरे, वो जार-जार चिल्लाई थी यही सोच में पड़ कर मैं भी, सुध-बूध अपना खोई थी रौशन जग में आज भी शायद, रात अभी तक सोई थी"