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Showing posts from November, 2017

रात अभी तक सोई थी

भोर हूई थी बोझिल-बोझिल, उपवन भी मुरझाई थी आँख खुली तो लगा के जैसे, खिड़की पर कोई रोई थी देखा तो आँखें भीगी थी, वो बच्ची जो अकेली थी कोई पास में उसके सोई थी, वो माँ जो नई-नवेली थी बाहर निकला, हाथ दिया, सहसा मन को झकझोर गया वो मृत पड़ी थी शैय्या पर, कोई हवसी शायद नोच गया भूख, गरीबी, लाचारी की, शायद ये सताई थी सुना किसी के मुख से ये तो, घर से गई भगाई थी ले बच्ची को साथ में अपने, दर-दर ठोकर खाई थी पीहर में भी अपनी सौतेली, माँ की वो सताई थी पथरायी आँखों से बोझिल, कदमों से हुई पराई थी ले हौसला निकल पड़ी थी, जग की ठोकर खाई थी ढलता सूरज धमकाया था, ढूंढ ले अपने आशियाने को सर्द है मौसम रातें लम्बी, बच्ची को भी बचानी थी देख के मंदिर सुना-सुना, रुकने यहाँ वो आई थी सुमिरन करके श्याम प्रभु का, दुखडा अपना रोई थी भूखी बच्ची की खातिर वो, खाना लेने आई थी लेकिन हवसी दानवों से, कहाँ वो बचने वाली थी भाग्य विधाता ने न जाने, क्या तकदीर बनाई थी मदद मांगती दरवाजे पर मेरे, वो जार-जार चिल्लाई थी यही सोच में पड़ कर मैं भी, सुध-बूध अपना खोई थी रौशन जग में आज भी शायद, रात अभी तक सोई थी"

कोहरा या धुंध

आज शाम अचानक, कोहरे के चौतरफे आक्रमण ने पुरे गांव को स्तब्ध कर दिया। प्रकृति का ये अजीबोग़रीब शरारत लोगों के लिए कौतूहल का विषय बन गया था। ख़ास कर बच्चों के लिए तो टीवी में पहाड़ीयों के उपर उड़ते बादलों सा नजारा था। बनना भी स्वाभाविक था क्योंकि उनके लिए पहली बार इस तरह की कोई घटना घट रही थी। बच्चों के लिए ही नहीं ये सब के लिए नया था, क्योंकि पहले के कोहरे और इस कोहरे में फर्क था, इस कोहरे में एक अजीब सी धुंध मिली थी जिससे सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। हमें ये समझते देर नहीं लगी कि ये असंतुलित होते पर्यावरण का नतीजा है। बच्चे उत्सुकता में प्रश्नों की बौछार कर रहे हैं, और हम अपनी गलती छुपाते शर्मसार हो रहें हैं, ग्लोबल वार्मिंग का ज्ञान बांच रहे हैं, और कर भी क्या सकते हैं। मन तो कर रहा अभी जा गड्ढा कुरेदें और पेड़ पौधों की लाईन लगा दें लेकिन बेबसी ऐसी की जेब से हाथ भी नहीं निकल रहा। शायद कुदरत अब भी मौका दे रही हमें चेतने का, शायद कह रही हो अब भी नहीं समझे तो फिर बहुत देर हो जाएगी, फिर गाते रहना "अब पछताए होत क्या जब चिड़ियां चूग गई खेत"